– वाल्मीकि रामकथा का चौथा दिन
चित्रकूट : धर्मनगरी स्थित तुलसी पीठ के मानस हाल में चल रही नौ दिवसीय वाल्मीकि रामायण कथा के चौथे दिन की कथा को जगद्गुरु रामभद्राचार्य महाराज ने अपने 74वें वर्ष में प्रथम कथा के रूप में अभिहित किया। कथा प्रारम्भ करने से पूर्व उन्होने अपनी नव-स्थापित संस्था रामानन्द मिशन के विषय में चर्चा की।
उन्होने बताया कि रामानन्द मिशन के चार उद्देश्य समरसता, सेवा, शिक्षा और संस्कार है। उन्होंने समरसता के लिए अपने शिष्यों को किसी से न चिढ़ने, जाति तथा जातिवाद को समाप्त करने तथा धर्म परिवर्तित हिंदुओं की घर वापसी कराने के तीन आदेश दिए। सेवा के लिए उन्होने प्रथम आदेश अपने उत्तराधिकारी आचार्य रामचन्द्र दास को मन्दाकिनी स्वच्छता के रूप में दिया। उन्होने मंच से घोषणा की कि आचार्य रामचन्द्र दास सम्पूर्ण राघव परिवार का व्यावहारिक पक्ष देखेंगे और वह स्वयं शास्त्रीय पक्ष देखेंगे। जगद्गुरू ने अपने सभी शिष्यों को वर्ष में तीन बार अवश्य चित्रकूट आने का आदेश दिया। प्रथम उनके जन्मोत्सव पर, द्वितीय रामनवमी पर तथा तृतीय गुरुपूर्णिमा के अवसर पर चित्रकूट आने के आदेश दिए।
इसके बाद जगद्गुरू ने राम शब्द की व्याख्या के साथ श्रीराम कथा प्रारम्भ की। पहली व्याख्या चारों वेद के रूप में की र से ऋग्वेद, आ से यजुर्वेद, ग से माधुर्य प्रधान सामवेद तथा अ से अथर्वेद का जुड़ाव है। दूसरी व्याख्या रा से रामायण, म से महाभारत के संयुक्त भाष्य के रूप में की। तृतीय व्याख्या राष्ट्र के मंगल करने वाले के रूप में की। चतुर्थ व्याख्या राष्ट्रीय मर्यादा की सुरक्षा के रूप में की। पाँचवी व्याख्या रमेश (विष्णु), अम्बा और महेश के संयुक्त विग्रह के रूप में की। जगद्गुरू ने वाल्मीकि रामायण में उपस्थित सीता-अनुसूइया संवाद के माध्यम से माता सीता के जन्म का प्रसंग प्रस्तुत किया। उन्होने अपने विद्वतापूर्ण तर्कों के माध्यम से प्रचलित घड़े से उत्पन्न सीता की कथा को अप्रासंगिक सिद्ध कर दिया। उन्होने घड़े की कथा को भ्रांति बताया और कहा कि यदि माता सीता घड़े से जन्म लेती तो उनको भी अगस्त्य मुनि की तरह कुंभजा, घटजा जैसे विशेषणों से पुकारा जाता। जबकि सीता माता को कभी इस रूप में नहीं बुलाया गया। उन्होने अपनी कथा में पुत्री को पुत्र से श्रेष्ठ सिद्ध किया और राजा जनक द्वारा याज्ञवल्क्य ऋषि से पुत्री की कामना प्रकट करने को उनकी विद्वता का प्रभाव बताया। जगद्गुरु ने माता सीता को उत्तर मीमांशा का रूप बताया और उसके चार अध्यायों से सीता माता की भूमिका को जोड़कर प्रकट किया। उन्होने श्रीराम और माता सीता को परमेश्वर का ही दो स्वरूप सिद्ध किया। श्रीराम भगवान तथा माता सीता भक्ति हैं। भगवान और भक्ति वस्तुतः एक ही हैं। हमारी मेधा पृथ्वी है, जहां से भक्ति की उत्पत्ति होती है। अंत में लाल बहादुर शास्त्री विश्वविद्यालय दिल्ली के आचार्य प्रो राम सलाही द्विवेदी ने उपसंहार प्रस्तुत करते हुए राम नाम की व्याख्या को गुरुदेव की मौलिक उपलब्धि बताते हुए उनकी विशेषताओं का वर्णन किया।
इस दौरान कथा में जेआरएचयू के कुलसचिव आर पी मिश्र, लेखाधिकारी न्याय बन्धु गोयल, मुख्य प्रशासनिक अधिकारी डॉ मनोज पांडेय, प्रज्ञा चक्षु विद्यालय की प्रधानाचार्या निर्मला वैष्णव, मुख्य यजमान के रूप में लालजी केवला प्रसाद त्रिपाठी, उमेश श्रीवास्तव, विपुल प्रकाश शुक्ल, मानस शुक्ल, विनय, गोविंद, उत्सव, दीनानाथ दास, मदनमोहन दास, आञ्जनेय दास, वैभव, विशंभर, हिमांशु त्रिपाठी, कश्यप व पूर्णेंदू तिवारी आदि मौजूद रहे।