– कथा का दूसरा सत्र
चित्रकूट: धर्मनगरी स्थित तुलसी पीठ के मानस हाल में जगद्गुरु रामभद्राचार्य महाराज के जन्मोत्सव के अवसर पर मुंबई हाईकोर्ट के प्रसिद्ध अधिवक्ता लालजी केवला प्रसाद त्रिपाठी की यजमानी में आयोजित रामकथा के दूसरे सत्र में जगद्गुरू ने श्रीराम के परमत्व पर अपनी मान्यता से संबन्धित तर्क रखे। उन्होने तर्क दिया कि यदि महर्षि वाल्मीकि को विष्णु के अवतार श्रीराम का वर्णन करना होता, तो वो अपने महाकाव्य का नाम नारायणम रखते न कि रामायणम। हमारे अवचेतन में श्रीराम का परमत्व गहरे बैठा हुआ है, उसे अब किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है। बच्चे-बच्चे राम के परमत्व के गीत गाते हुए मिल जाते हैं।
उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा में प्रमाणों के दो भेद माने गए हैं, जो स्वतः प्रमाण तथा परतः प्रमाण है। ऐसे प्रमाण जो स्वतः सिद्ध हैं, उनको स्वतः प्रमाण तथा जिनको सिद्ध करने के तर्कों की आवश्यकता पड़े उसे परतः प्रमाण कहते हैं। जैसे वेद को स्वतः प्रमाण माना जाता है, उसे सिद्ध करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। रामायण को पंचम वेद माना गया है। यह वेद के समान है अतः इसे भी स्वतः प्रमाण मानना चाहिए। वहीं पुराण परतः प्रमाण के वर्ग में आते हैं। अतः उनके द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों को तर्को की कसौटी पर कसकर ही मान्यता प्रदान की जाती है। इसीलिए पुराणों के वहीं तथ्य मान्य हैं, जो श्रुति सम्मत है। इसलिए वह स्वयं श्रीराम को परमतत्व मानते है। कथा के अंतर्गत गुरुवार को श्रीराम का जन्मोत्सव मनाया गया। इस बिन्दु पर आकर कथा का स्वरूप उत्सवधर्मी हो गया। मानस कथा हाल में बैठे हुए प्रत्येक श्रद्धालु श्रीराम जन्म के श्लोक, गीत, सोहर तथा संकीर्तन के धुन में सराबोर हो गए। जगद्गुरू के स्वर में सभी साधू-संत तथा श्रद्धालु आनंद विभोर होकर प्रभुभाव में डूब गए।
तुलसी पीठ के उत्तराधिकारी युवराज आचार्य रामचन्द्र दास ने कथा के द्वितीय सत्र की प्रस्तावना प्रस्तुत किया। आचार्य विश्वंभर ने मंत्रोच्चार के साथ व्यासपीठ का पूजन सम्पन्न कराया। गुजरात से आई शिष्या प्रीति मोहता ने जगद्गुरू की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। इस दौरान जगद्गुरू के शिष्य आचार्य हिमांशु त्रिपाठी, मदनमोहन, आञ्जनेय, विनय, गोविंद, पूर्णेंदु व पीआरओ एस पी मिश्रा आदि ने सहयोगी के रूप में कार्य किया।